जब जब तृष्णा मृगतृष्णा में बदली
देखा है ठंड का मौसम कैसे तृष्णा बढ़ाता है
फिर अकसर यही मौसम सीखा मुझे कुछ जाता है
उनीदी सी नींद से जब जब ये प्यास उठाती है
गरमाई चादर मेरी लिपट आगे मुझे बढ़ाती है
खिड़की से झांकती आग और उसकी वो गरमाई
दुनियादारी की इसी तपिश में मैं भी कुछ भरमाई
बेखबर सी चादर पकड़ जब इसी आग ने खाई
रंगबिरंगी मेरी चादर आधी स्वाह आधी स्याह हो आई
और तब पकड़ ठंड ने मुझे ये बात समझाई
पगली ये चादर ही तेरी अपनी है इसे क्यों खो आई
इच्छाओं को रंग देती है यही भाग्य कर्म की बुनाई
दुनियादारी की अग्नि तो जीवन के पश्चात ही काम आई
Kya baat hai
ReplyDelete