जजबातों का दौर चला

 

जजबातों का दौर चला

ना जाने किस ओर चला
जाने कितने अवसाद  रहे
कुछ भूल पड़े कुछ याद रहे
पर कही कुछ कचोटता है
धीमे धीमे मन टटोलता है
क्या जीवन क्रम मे यही होता है
सत्य यूँ ही बस सोता है
सत्य को सत्यापित करने को
भाषा के सरल से झरने को
आवारन भाव का धरना होगा
नहीं तो मौन ही मरना होगा
वाकपाटूता का दौर मे
सत्य छुपा किसी ओड मे
जिज्ञासा का अंत हुआ
विचारहीनता मंत्र हुआ
इतिहास तनिक खगोलो तो
ईस्वी नहीं कारण टटोलो तो
जिज्ञासा जब जब गौण हुई
परिस्तिथियो को थामे मौन हुई
कौन आगे बढ़ा बस चलता रहा
ओर समाज खुशियों की परिभाषा बदलता रहा
चलो मानो एक पुल बनाना है
जिसे सदियों तक चलाना है
ओर पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है
ओर जो नहीं कोई तैयारी है
तो भी वक़्त कोई कमी नहीं
बस नीव ऐसी ना हो की थमी नहीं
कितना इस पर विश्लेषण हो
की चलने पर शंका ना इक क्षण हो
बात अनुकूल लगी तो बस सुनकर
पुल बना दोगे मन के भरोसे पर 
या भावनाए बोझ संभाल लेगी
तथ्य ओर तर्क का स्थान लेंगी
जीवन इसी पुल जैसा लगता है
बनाने मे कौन क्या चुनाव करता है
तथ्यों का चुनाव जरुरी है
श्रम यत्न नहीं मजबूरी है
यूँ बस हंस खेल गाकर
चल दिए जो बस आकर
जो एक भी पुल ना बना पाए
क्या अर्थ है फिर जो समझाये

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